Saturday, October 23, 2010

दिन ..महीने ..साल..

हिंदी-अंग्रेजी कैलेंडरों के झगड़े के बीच मम्मी के बिना एक साल पूरा होने का कार्यक्रम भी पूरा हो गया अग्रेजी कैलंडर से ३ दिन खिसक कर|खिसक कर ही सही, इसके सिरे से जुड़े हम सब घर में बहुत दिनों बाद इकठ्ठा हुए| चीजें काफी कुछ बदली भी थी और कहीं नहीं भी...घर के अंदर मम्मी के मोर्चे को बड़ी भाभी ने सम्भाल लिया था और उसी अंदाज में पहुचते ही गेहूं के ड्रमों में चल रही घुनो की पार्टी में रुकावट पैदा करना शुरू कर दिया| घर के बाहर, शहर में बदलाव के नाम पर मोबाइल क्रांति ऐसे आ गयी थी जैसे धीरू भाई का सपना पूरा करने का ठेका मऊ शहर ने ही ले रक्खा हो| और बाकी सिस्टम का क्या पूछना, बैंक और एटीएम् ऐसे थे जैसे वहाँ सब गरीबी रेखा का राशन कार्ड लिए खड़े हो, और गाँधी जी की शक्ल वाले कागज फ्री में मिलने वाले हों..लगे रहो लाइन में! (कागज ही उचित शब्द है क्यूँ की निकलने के बाद तो वो ऐसे तोड़े-मरोड़े जाने वाला है की वो अपने करेंसी बिल होने की फीलिंग बनिए की दुकान पर ही कर पायेगा)| और जो बात नहीं बदली थी उनमे से एक है हम लोगों का खेत और उसकी निगरानी पद्धति...हमारे छुटपन से लेकर इस बार तक, हर मुलाकात में अपने जल्दी ही मरने का दावा करती हम लोगों का खेत देखने वाली, अभी भी उसी लगन से अपने से अगर कुछ बचा तो बतौर एहसान घर पंहुचा रही है| इन सब के बीच हम लोग भी अपनी पहचान से जुड़े उस घर में बदलाव का हिस्सा ही थे, जो वैसे तो सन्नाटे से भरा रहता है, उन दिनों आबाद था|

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