World is full of words and we all argue up to our most when ever we get a chance..but don't you feel that our words do like antibiotics that they do not work when they have to be a saviour for us...personally I feel so......may be u too.
Saturday, October 23, 2010
One more Dham: Amster-dham
The journey which started from 81, harikeshpura has reached to a new city Amsterdam. I could have written this before but it was like a transit stay in the city before in a longer journey which started right from Delft to Mau. But between these days lot of people whom I said that I stay in Amsterdam, were amazed to listen. Nothing different, I also used to think the same, but now when I'm here its time to realize how much it was true. Atleast in the initial walk around the city I didn't see anything surprising. The perception so far is the city, which is same as any other Dutch city with a little more crowd being capital. But, as it is said there is much depth in the sea, and making a guess from the shore is waste, lets see how its goes before I move to my next Dham (abode).
दिन ..महीने ..साल..
हिंदी-अंग्रेजी कैलेंडरों के झगड़े के बीच मम्मी के बिना एक साल पूरा होने का कार्यक्रम भी पूरा हो गया अग्रेजी कैलंडर से ३ दिन खिसक कर|खिसक कर ही सही, इसके सिरे से जुड़े हम सब घर में बहुत दिनों बाद इकठ्ठा हुए| चीजें काफी कुछ बदली भी थी और कहीं नहीं भी...घर के अंदर मम्मी के मोर्चे को बड़ी भाभी ने सम्भाल लिया था और उसी अंदाज में पहुचते ही गेहूं के ड्रमों में चल रही घुनो की पार्टी में रुकावट पैदा करना शुरू कर दिया| घर के बाहर, शहर में बदलाव के नाम पर मोबाइल क्रांति ऐसे आ गयी थी जैसे धीरू भाई का सपना पूरा करने का ठेका मऊ शहर ने ही ले रक्खा हो| और बाकी सिस्टम का क्या पूछना, बैंक और एटीएम् ऐसे थे जैसे वहाँ सब गरीबी रेखा का राशन कार्ड लिए खड़े हो, और गाँधी जी की शक्ल वाले कागज फ्री में मिलने वाले हों..लगे रहो लाइन में! (कागज ही उचित शब्द है क्यूँ की निकलने के बाद तो वो ऐसे तोड़े-मरोड़े जाने वाला है की वो अपने करेंसी बिल होने की फीलिंग बनिए की दुकान पर ही कर पायेगा)| और जो बात नहीं बदली थी उनमे से एक है हम लोगों का खेत और उसकी निगरानी पद्धति...हमारे छुटपन से लेकर इस बार तक, हर मुलाकात में अपने जल्दी ही मरने का दावा करती हम लोगों का खेत देखने वाली, अभी भी उसी लगन से अपने से अगर कुछ बचा तो बतौर एहसान घर पंहुचा रही है| इन सब के बीच हम लोग भी अपनी पहचान से जुड़े उस घर में बदलाव का हिस्सा ही थे, जो वैसे तो सन्नाटे से भरा रहता है, उन दिनों आबाद था|
Subscribe to:
Posts
(
Atom
)